नींद - एक और कविता पुरानी डायरी से

जैसा कि मैं स्‍वीकारोक्ति कर चुका हूं कि मुझे पद्य की समझ नहीं है इसके बावजूद मैंने कुछेक धृष्‍टताएं इस क्षेत्र में की हैं।
ऐसी ही एक कविता... पता नहीं कैसी है...

प्‍यारी नींद


आज फिर तैयार हो निकला मैं
इस संग्राम में
नई भोर में नया जीवन लिए
भिड़ने को तैयार मैं
दिनभर जूझा, दिनभर लड़ा
थक गया उस शाम मैं
फिर सुहानी रुपहली उस शाम को
मस्‍ती में डूबा रहा मैं
फिर अकेले बैठ बिताए
कुछ तन्‍हाई के पल मैंने
खो गया चैन,
ले ली बेचैनी मैंने
उड़ गई नींद
जागता रहा सारी रात मैं
समझ न पाया समझ में
क्‍या खो दिया कुछ पाने में
घावों को भरने वाली
नींद को छोड़ दिया मैंने
जो मीठी नींद दे सकती थी
फिर लड़ने की ताकत मुझे
तोड़ा उस नींद से नाता
जागता रहा सारी रात मैं...

सिद्धार्थ - 13-4-2002

3 टिप्पणियाँ:

  1. kshama Says:

    जो मीठी नींद दे सकती थी
    फिर लड़ने की ताकत मुझे
    तोड़ा उस नींद से नाता
    जागता रहा सारी रात मैं.
    Bahut sundar!

    Posted on 14 मार्च 2010 को 3:57 am बजे  

    Udan Tashtari Says:

    जो मीठी नींद दे सकती थी
    फिर लड़ने की ताकत मुझे
    तोड़ा उस नींद से नाता
    जागता रहा सारी रात मैं...

    -क्या बात है..वाह!

    Posted on 14 मार्च 2010 को 7:13 am बजे  

    शरद कोकास Says:

    नीन्द पर अच्छा खयाल है ।

    Posted on 15 मार्च 2010 को 12:39 pm बजे  

एक टिप्पणी भेजें